हिंदी_दिवस
एक चमकती दमकती दफ़्तर के सामने,
झुर्रियों की सिलवटों में खुद को समेटे,
एक थकी हारी बूढ़ी माँ,
अपने क़ामयाब बेटे से मिलने को,
दरवाजे पे दस्तक देने को जाती है।
हाथ उठ उठ के भी रुक जाते हैं,
एक डर, एक झिझक,
थोड़ी शर्म, थोड़ी हिचक,
कई कोशिशों के वावजूद भी,
बेचारी हिम्मत जुटा नहीं पाती है।
यह एक दरवाजा दीवार सा क्यूँ है,
जबकि देश भी अपना है,
और अंदर बैठे लोग भी अपने हैं,
अब तक इंतजार में है वो बेबस माँ,
हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा, जो हिंदी कही जाती है।
-आशुतोष कुमार
#हिंदी_दिवस
#राष्ट्रभाषा_दिवस
झुर्रियों की सिलवटों में खुद को समेटे,
एक थकी हारी बूढ़ी माँ,
अपने क़ामयाब बेटे से मिलने को,
दरवाजे पे दस्तक देने को जाती है।
हाथ उठ उठ के भी रुक जाते हैं,
एक डर, एक झिझक,
थोड़ी शर्म, थोड़ी हिचक,
कई कोशिशों के वावजूद भी,
बेचारी हिम्मत जुटा नहीं पाती है।
यह एक दरवाजा दीवार सा क्यूँ है,
जबकि देश भी अपना है,
और अंदर बैठे लोग भी अपने हैं,
अब तक इंतजार में है वो बेबस माँ,
हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा, जो हिंदी कही जाती है।
-आशुतोष कुमार
#हिंदी_दिवस
#राष्ट्रभाषा_दिवस
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