बूँदों का घर
ढूँढा गाँव गाँव , खोजा शहर शहर , जाने कहाँ गये वो झील , वो पोखर , जिधर देखा , बस दीवार ही दीवार आई नजर , आख़िर लूटा किसने , बारिश की बूँदों का घर , ठहरे तो ठहरे कहाँ , बसे तो बसे किधर , रास्तों पर भटकती , पहुँचती नदी के दर , समेटे यादें मिट्टी की , अपने ब्यथित मन के अंदर , नदी में गिरती पड़ती , मज़बूर जाने को समन्दर , थी उसकी अभिलाषा रहूँ , निज निलय में जीवन भर , अनवरत आँसू उसके, रख देते पयोधि को खारा कर , फिर जब प्यासी धरती पुकारती तड़प तड़प कर , नभ में उठती जाती बूंदें , रश्मि रथ पर चढ़कर , महीनों चलता यह क्रम , तब बनते बादल गगन पर , फिर जाकर बरसती घटायें , सावन भादो बन कर , तपती धरणी पे शीतल बूँदें , जब पड़ती झम झम कर , कहीं सीप में बनते मोती , नाचे मोर कहीं छम छम कर , कुछ ही देर में सारी बूंदें , छा जाती धरा पर , घर वापसी की खुशी , टिक न पाती ज़रा पर , खोजती खोजती थक जाती , मिलता