बद्दुआयें
लगता है वो बद्दुआयें असर कर रही हैं मनके मालाओं से टूट कर बिखर रही हैं पिरोता हूँ हर रोज इसी उम्मीद पे की निभ जाएगी जिंदगी भर पर टूट जाती हैं फिर ज्यूँ रखता हूँ बंदगी कर मनको की जगह अब गाठों ने ले ली हैं गाँठें बड़ी मनके छोटी हो चली हैं देखा है लोगो को नए धागे पिरोते बार बार सपनो की नयी दुनिया संजोते पर मैंने ही खुद जब ये माला चुना था अपनों परायों से लड़ कर गुना था कैसे पल में पराया कर दूँ उस बंधन को जिन्दा रखा जिसने मोतियों के स्पंदन को आँखों का हाल रेगिस्तान सा है रेत नहीं भीतर पर भान सा है खुली ऑंखें शब से सहर कर रही हैं, लगता है वो बद्दुआएँ असर कर रही हैं!